चुनावी बिसात पर लड़ रहे मुद्दों के बीच हिमाचल के भ्रम भी डटे हुए हैं। चुनाव न सही कह पा रहा और न ही सुन रहा। वही दो चार अपशब्द, छह बागी पूर्व विधायक, बालीवुड की कंगना और गोदी-मोदी के बीच बंटवारे की हदें खोजता प्रचार। ये चुनाव गुजर जाएंगे, लेकिन लकीरें पीटते हमारे भविष्य के प्रश्र लंबित रह जाएंगे। प्रदेश के समाज, लोगों और सरकारों के ढर्रे को यह भ्रम सदैव रहा है कि हिमाचल यूं ही चलते-चलते एक दिन पुण्य कमा लेगा। यही वजह है कि हर विधायक को अपने-अपने हलके में वह सब कुछ चाहिए, जो सत्ता से बटोर सकता है। अब तो राज्य का यह भ्रम टूट गया कि अपनी औकात पर हम बजट बना ही नहीं सकते, इसलिए अस्सी हजार करोड़ की देनदारी पर भी सत्ता के तिलिस्म में राजनीति चलती है। यहां प्रदेश की आर्थिकी के सिक्के का एक ही पहलू बचा है, चाहे भाजपा आजमा ले या कांग्रेस अपना ले, अंततरू हम कर्ज उठाएंगे और कर्मचारियों से लेकर सत्ता के लाभ में हर जगह तथा हर वर्ग में बांट देंगे। हमें यह भ्रम है कि अधिक स्कूल, कालेज और विश्वविद्यालय होंगे, तो प्रदेश के मानव संसाधन को चार चांद लगेंगे, लेकिन हमारी शिक्षा की कलई उतर रही है। हम तो बीबीएन में पैदा हो रहे रोजगार के भी काबिल नहीं। अकेले बीबीएन में करीब चार लाख बाहरी राज्यों के लोग रोजगार पा रहे हैं, फिर भी हमें भ्रम है कि सत्तर फीसदी हिमाचली वहां गुलकंद खा रहे हैं।
हिमाचल के हर जिला का सबसे बड़ा कसूरवार रोजगार कार्यालय है, जहां 45 वर्ष की आयु तक सरकारी नौकरी के आवेदन सूखते नहीं और बैच वाइज अगर टीचर भर्ती हो, तो फिर कोई पाठ्यक्रम अहमियत रखता ही नहीं। क्या गजब की सियासी घोषणा है कि जो युवा क्षमता को 45 वर्ष तक सरकारी नौकरी की कतार में खड़ा करके निकम्मा बना रही है। काश! हिमाचल युवा उद्यमशीलता पर गंभीरता से प्रयास करता। हमारी शिक्षा और विश्वविद्यालय पाठ्यक्रम के जरिए डिग्रियों की मशीन न साबित होकर युवा वर्ग की जोखिम लेने की क्षमता, राष्ट्रीय प्रतिस्पर्धा की काबिलीयत, संचार कौशल, नेतृत्व, उत्कृष्टता और नवीन तकनीक की दृष्टि पैदा कर पाते। आश्चर्य यह कि केंद्रीय विश्वविद्यालय को जम्मू-कश्मीर के विविध पहलुओं पर माथापच्ची से फुर्सत नहीं, जबकि वहां दो केंद्रीय विश्वविद्यालय पहले से ही हैं। आधी सदी गुजार चुके शिमला विश्वविद्यालय की हालत यह है कि वाणिज्य की पढ़ाई तक को संवार नहीं पाया। हमारे बच्चों में देश के प्रति जुनून व जज्बा है, लेकिन एक भी डिफेंस स्टडीज का स्वतंत्र कालेज नहीं बना पाए। हमारी महत्त्वाकांक्षा जातीय और समुदाय के साम्राज्यों का गठन करना है ताकि हर प्रगति और प्रशंसा में किसी हिमाचली से अधिक हम जाति या वर्ग में पहचाने जाएं। आश्चर्य यह कि हमारे बच्चों को कोई रोल मॉडल या मार्ग दर्शक नहीं मिलता और इसलिए स्कूल-कालेजों के वार्षिक समारोहों में वही नेता हमें भ्रम में जीना सिखा रहे हैं, जो आज तक कुछ नहीं कर पाए।
क्यों न ऐसे समारोहों में नेताओं की उपस्थिति बंद की जाए और कर्म से प्रतिष्ठित लोगों को बुलाया जाए। राज्य को भ्रमित करती नीतियां और कार्यक्रम बंदरबांट करते हुए केवल सार्वजनिक क्षेत्र के घाटे में घटिया नस्लें उगा रहे हैं। सत्ता के पद अगर गौर से देखे जाएं, तो वहां सामाजिक प्रतिष्ठा, उत्कंठा व काबिलीयत की सरेआम तौहीन भी सर्वमान्य है। यह सब इसलिए हो रहा है क्योंकि हिमाचली समाज अब समुदाय बनकर न तो सोच रहा है और न ही प्रकट हो रहा है। हमें विकास का समुदाय, प्रदेश हित का समुदाय, आर्थिक खुशहाली का समुदाय, आर्थिकी का जवाबदेह समुदाय और भविष्य का समुदाय बन कर सोचना पड़ेगा, वरना चुनाव की रेहड़ी पर हम, आप और प्रदेश यूं ही बिक जाएगा।